मंगलवार, 19 अगस्त 2008

खेती और गांव को कब प्राथमिकता देगी सरकार

अरविन्द कुमार सिंह
बीते छह दशक में भारत ने कई मोरचों पर अपार उपलव्धियां हासिल की हैं। जब क्रमवार उपलव्धियों की बात होती है तो आम तौर पर सभी खाद्यान्न आत्मनिर्भरता को आजादी के बाद की सबसे बड़ी उपलव्धियो में मानते हैं । इस उपलव्धि को किसानो तथा कृषि वैज्ञानिको के साझा प्रयासों से साकार किया गया था। यह उपलव्धि भी देश के महज ढ़ाई सूबों में आयी हरित क्रांति की बदौलत हासिल हुई। देश के अधिकतर हिस्से इस क्रांति से अछूते रहे और अब साठ साल बाद दूसरे हरित क्रांति का तानाबाना बुना जा रहा है क्योंिक पहली हरित क्रांति धार खोने लगी है और पंजाब जैसे सबसे संपन्न और प्रगतिशील खेती करनेवाले सूबे में िकसान आत्महत्या कर रहे हैं। यही नहीं उदारीकरण के बाद खेती को फायदा होने के बजाय झटका लगा है और गांव तथा शहर के बीच की खाई लगातार गहराती जा रही है। विकास की दौड़ से हमारे गांव काफी पीछे छूटते जा रहे हैं। यह विषमता की खाई हमें किस दिशा में ले जाएगी क हा नहीं जा सकता है। देश का नक्शा बीते 60 सालों चाहे जितना बदल गया हो और सकल घरेलू आय में खेती का हिस्सा भले ही लगातार घटता जा रहा हो पर यह महत्वपूर्ण तथ्य है िक भारत की आबादी का 65 से 70 फीसदी हिस्सा खेती पर ही निर्भर हैं। वही दुखद पक्ष यह है िक बीते कई सालों से खेती की विकास दर औसतन 2 से 3 फीसदी के बीच ठहरी हुई है और कई महत्वपूर्ण राज्यों में कृषि उत्पादन ठहर गया है। आज देश के 12 करोड़ किसान परिवारों का क्या हाल है इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है िक इनमें से 60 फीसदी के पास बैंक खाते तक नहीं है। इसी तरह आजादी के बाद कुल 40 फीसदी खेती की भूमि को ही सिंचाई सुविधा मुहैया करायी जा सकी है और बाढ़, सूखा तथा प्राकृतिक आपदाओ से निजात पाने का भी ठीक रास्ता नही खोजा जा सका है। खाद्य प्रसंस्क रण का नया मंत्रालय बनने और कई योजनाओं के बाद भी आज करीब 58,000 करोड़ रू का कृषि उत्पाद बर्बाद हो रहा है। लाखों लोग जिस देश में भूखे पेट सो रहे हों वहां ऐसी स्थिति कितनी दर्दनाक है। पंचायतों का शुद्द राजनीतिकरण कर दिया गया और गांवो में झगड़े और मुकदमेबाजिया बढ़ गयी हैं। फिर भी कई मोरचों पर बदलाव दिख रहे हैं। एक जमाना था जब भारत में अस्पतालों के बाहर ही फल मिला क रते थे पर आज छोटे छोटे कस्बों तक उनकी पहुंच हो गयी है। फलों और सव्जियों के उत्पादन में भारत दुनिया में दूसरे नंबर पर पहुंच गया है। साठ के दशक में जिस हरित क्रांति की गाथा लिखी गयी,उसने हमे काफी मदद पहुंचायी। उन्नत बीजों और वैज्ञानिक समर्थन के नाते हमारे खाद्य भंडार इतना भर गए िक हम निर्यात करने लगे। ले·िकन तिलहन और दलहनी फसलों में अभी भी आत्मनिर्भरता की मंजिल दूर है। भारत में 2002 में केंद्रीय पूल में 630 लाख टन तक अनाज आ गया। और अनाज रखने की जगह भी नहीं बची तो मात्र 90 डालर प्रति टन पर गेहूं निर्यात हुआ। लेकिन आज 60 साल बाद 320 से 360 डालर प्रति टन की दर पर पचास लाख टन गेहूं का आयात किया जा रहा है। देसी किसानो को उपज का उचित दाम देने की ठोस व्यवस्था हम नहीं कर सके हैं पर विदेशी किसानो की तिजोरी हम भर रहे हैं। हमारा आयात बिल बढऩे लगा है। भारत ने अकेले 2005 में 22,000 करोड़ की राशि गेहूं, दाल व तिलहन आयात पर खर्च की यह आत्मनिर्भरता पर सवालिया निशान नही तो और क्या लगाता है। भारत जैसे देश , जिसके पास दुनिया की करीब 17 फीसदी आबादी रह रही है, को अनाज की जरूरत होगी तो दाम तो बढ़ेंगे ही। यूपीए सरकार खेती के मोरचे पर गंभीर नहीं रही। किसान की आमदनी घट रही है जबकि खर्च बढ़ । धड़ाधड़ खेतों में उग रहे सेज उपजाऊ जमीनों को हड़पते जा रहे हैं। प्रधानमंत्री को ऐसा लग रहा है िक कृषि क्षेत्र पैकेज घोषित कर देने से किसानो की सारी समस्याएं छू मंतर हो जाएंगी। उनको शायद किसानो और शहरी विकास के बीच पनप रहे असंतुलन की चिंता नहीं है। वास्तविकता यह है िक किसान आज देश का सबसे कमजोर वर्ग बन गया है । आजादी मिलने के समय देश में खेती किसानी की एक विशिष्ट प्रतिष्ठा थी। पर पिछले दो दशक से केन्द्र और प्रांतीय सरकारें खास तौर पर पूंजीपतियों और प्रोपर्टी के डीलरों की ही पैरोकारी कर रही हैं। उनको किसानो की लगातार बिगड़ रही दशा के प्रति एक दम चिंता नहीं है। सरकारों की समग्र चिंता खेती को बाजार के हवाले कर किसानो को लाभ का लालच देकर निर्यात जरूरतों को पूरी करने भर की दिखती है। सरकारी नीतियों के चलते ही यह हालत बन गयी है िक जो किसानो ज्यादा पैदा करता है वह अपने लिए उतनी ही बड़ी मुसीबत मोल लेता है। छोटे काश्तकारों और खेतिहर मजदूरों में उन 54 फीसदी की हालत बेहद जर्जर है जो गरीबी रेखा के नीचे रह रहे हैं। देश में कुल 23 करोड़ मजदूर खेती बाड़ी में लगे हैं जो िक कुल श्रम शक्ति का 58 फीसदी हिस्सा है। देश के क ई हिस्सों में आज भी बैलगाड़ी युग चल रहा है। खेती को आज भी बैल ट्रैक्टर से ज्यादा ताक त दे रहे हैं। आज भी देश में सात करोड़ बैल तथा अठारह लाख भैंसा कृषि कार्य में लगे हैं और बैलगाडियां 2500 करोड़ टन माल ढो रही हैं। लेकिन एक सोची समझी साजिश के तहत देशी तकनीकी ज्ञान ध्वस्त किया जा रहा है। भारत में ६ लाख से ज्यादा गांव हैं और हर गांव में कमसे कम 50 किसान परिवार रहते हैं। बीते एक दशक से पहले गांवो में आत्महत्या की घटनाएं सुनी भी नहीं जाती थी लेकिन आज ये देश के कई हिस्सों में हो रही है। राजग राज में अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने किसानो की आत्महत्याओं पर काफी शोर मचाया था। देश में आबादी का बोझ बढऩे के साथ जमीनो पर भी दबाव बढ़ रहा है। सीमांत जोतों का राष्ट्रीय औसत ६४ प्रतिशत हो गया है जबकि यूपी जैसे राज्य में सीमांत जोतों की ७४ फीसदी हो गयी है। कुल खेतिहर जोतों मे छोटी जोतों को अलाभकारी ही माना जाता है। यूपी में जोतों का औसत आकार 0.90 हेक्टेयर है जबकि पंजाब में यह 3.61 और हरियाणा में 2.43 हेक्टेयर है। आजादी के बाद यह भी दुखद पक्ष है की देश के विख्यात कृषि वैज्ञानिको को अपेक्षित सम्मान नहीं मिल सका । भारत में नियोजित विकास प्रक्रिया के चलते कई क्षेत्रों में तस्वीर बदली है। पर देहात में करीब पचास लाख परिवार बेघर हैं। देहात में 3.11 ·करोड़ आवासीय इकाइयों की कमी है। देश में 1.26 ·करोड़ आबादी प्रतीकात्मक मकानो में तथा 63 लाख लोग बेहद जर्जर मकानो में रह रही है। भारत में कु ल 8.25 लाख ग्रामीण बस्तियों में से करीब 3.30 लाख बस्तियों के पास केवल मौसमी रास्ते ही हैं। देहाती आबादी का 39 फीसदी हिस्सा एक कमरे के मकान मे रह रहा है। बिजली या बाकी सुविधाओं की हालत कु छ ही जगह ठीक है। इसी तरह देश में ग्रामीण गरीबी आज भी चिंताजनक तस्वीर पेश करती है।1990 के दशक के शुरू में गरीबी 36 फीसदी से घट कर अब 26.1 प्रतिशत रह गयी है ,पर यह आंकडा भी विवादों के घेरे में है। एक डालर से कम आय पर रोज अपना गुजारा करनेवाले लोंगो की भारत मे जितनी आबादी है,उस हिसाब से निर्धनता की दर 39 प्रतिशत मानी जा रही है। देश के आधे निर्धन १३.3 करोड़ लोग उ।प्र।,बिहार और मध्यप्रदेश में रहते हैं और तीन चौथाई निर्धन गांवो मे रहते हैं। इस हालत में देहात और किसान की दशा को समझा जा सकता है

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