रविवार, 17 अगस्त 2008

घाटे की खेती को संकट से उबारना जरूरी

अरविन्द कुमार सिंह
कृषि मूल्य नीति के सवाल पर यूपीए सरकार के रवैये से देश के किसान काफी नाराज हैं । देश में कमी न होने के बाद भी विदेशी शक्तियों के दबाव में गेंहूं का मंहगे दामों पर आयात करना और अपने fकसानो को मामूली कीमत देने जैसे मुद्दों की आलोचना के बाद सरकार चेती तो पर इससे किसानो की नाराजगी बेहद बढ़ गयी है। भारतीय किसान यूनियन तथा तथा आंदोलन समन्वय समिति ने सरकार को साफ अल्टीमेटम दे दिया है और कहा है fक आगामी फसल के लिए गेहू का भाव 1500 रूपए कुतल हो । अगर सरकार 24 रूपए किलो में विदेशी गेहूं मंगा लेती है तो फिर 15 रूपए किलो किसानो को देने में दिक्कत नहीं आनी चाहिए।
पर इससे भी बड़ा सवाल अलाभकारी मूल्य तय करनेवाली किसान विरोधी मूल्य नीति से जुड़ा है। इसमें आमूल चूल परिवर्तन लाने की मांग भी अब काफी मुखरता से उठ गयी है। बीते एक दशक में खास तौर पर आर्थिक दबाव के चलते देश में डेढ़ लाख किसानो ने आत्महत्या कर ली। इसकी मुख्य वजह वाजिब दाम न मिलना और किसानो के कर्ज में दबा रहना है। वैसे तो यूपीए सरकार ने किसानो के सामने काफी वायदा किया था पर वह किसानो की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरी। खेती के मंत्री शरद पवार किसानो के पैरोकार हैं और किसान समुदाय में उनकी पैठ भी है। पर नीतियों में बदलो उनके हाथ से बहार की बात है । सव्सिडी घटाने का ही लगातार राग अलाप रहे प्रधानमंत्री डा .मनमोहन सिंह से तो इस मामले में कोई अपेक्षा नहीं हो सकती है। दूसरी तरफ़ वित्तमंत्री पी. चिंदाबरम तो समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद ही समाप्त करने की वकालत कर रहे हैं । यूपीए सरकार के कार्यकाल में जितनी बार भी न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित हुए हैं, उससे किसानो की परेशानी बढ़ी ही है। ज्यादातर मौको पर फसलों के दाम मूल्य नीति की मौजूदा नीतिओं के भी विपरीत फसल बुवाई के बाद घोषित किए गए हैं। दूसरी ओर गेहूं, धान तथा मोटे अनाजों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में मामूली इजाफा ही हुआ।

ऐसा माना जा रहा था, किसान आयोग की सिफारिशों को मानते हुए सरकार कृषि मूल्य नीति पर खास ध्यान देगी और कमियों को दूर किया जाएगा, पर सरकार की विदाई के दिन करीब आ गए हैं और इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की गयी है। हालाँकि यूपीए का दावा था fक उसके एजेंडे में खेती- बाड़ी सर्वोच्च है और इसी नाते कर्जमाफी से लेकर उदार कर्ज नीति बनायी गयी।
भारत में 46 प्रकार की मिट्टी तथा 15 जलवायु क्षेत्र है,जहां खेती की लागत अलग-अलग है। मौजूदा मूल्य नीति किसानो के पारिवारिक श्रम को एकदम नजरंदाज करती है ऐसे में इसे शामिल करते हुए कृषि लागत और मूल्य आयोग को नए सिरे से मानक तय करना चाहिए। उदारीकरण ने भारतीय किसानो को बिना तैयारी के विश्व बाजार में ला खड़ा कर दिया है,पर मूल्य नीति तक ठीक नहीं किया जिस नाते तमाम संपन्न कहे जाने वाले इलाको में किसानो ने आत्महत्या की ।
फसलों के दाम कैबिनेट की आर्थिक मामलों की समिति ने कृषि लागत और मूल्य आयोग की सिफारिसों के आधार पर तय करती है। आयोग की सिफारिसे समिति के पास भेजे जाने के पहले राय के लिए विभिन्न केद्रीय मंत्रालयों तथा राज्य सरकारों के पास भी भेजी जाती हैं। इसमें नौकरशाही इतनी अड़चन खड़ा कर देती है की िक किसान तब तक फसल बुवाई कर लेता है। नियमानुसार फसल बुवाई के काफी पहले समर्थन मूल्य घोषित कर देने चाहिए जिससे किसान तय कर ले िक उसे वह फसल बोने में लाभ है या नहीं। इस बीच में कृषि आदानों के दामों में बहुत ज्यादा बढ़ोत्तरी हुई है। डीजल,खाद,पानी तथा कीटनाशक सभी बहुत मंहगे हों गए हैं। सबसे ज्यादा दिक्कत तो पश्चिमी यूपी ,हरियाणा और पंजाब के हरित क्रांतिवाले इलाको में आ रही है,जहां खेती की लागत आसमान छू रही है।
करने को तो यूपीए ने दूसरी हरित क्रांति का नारा बुलंद किया पर लाभकारी मूल्य और बिना ठोस समर्थन के तो पहली क्रांति ही खतरे में पड़ी है । योजना आयोग के मुताबिक आज भी खेती से ही देश मे सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार मिल रहा है। देश के दो तिहाई लोगों को आजीविका देनेवाले कृषि क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद में २४.2फीसदी का योगदान है तथा कुल निर्यात में भी खेती का योगदान 15 फीसदी से ज्यादा है। मगर वास्तविकता यह है िक 90 के दशक में फसल उत्पादन की वार्षिक वृद्धि दर ३.७२ फीसदी से घट कर २.२९ फीसदी पर आ गयी और अन्न उत्पादन ३.५४ फीसदी से घट कर चिंताजनक स्तर पर यानि १.९२ फीसदी पर आ गया है। इसमें लगातार गिरावट का रूख दिख रहा है। इसमें सुधार के लिए मूल्य नीति को नयी चुनौतियों के लायक बनाना जरूरी है।
न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानो की उपज खरीदना सुनिश्चित करना भी सरकार की ही जिम्मेदारी है। भारतीय खाद्य निगम,भारतीय कपास निगम,नेफेड तथा तंबाकू बोर्र्ड समर्थन मूल्य के दायरे में आनेवाली फसलों की वसूली करते हैं। सरकार कुल 25 फसलों के समर्थन मूल्य तय करती है। कुछ फसलों के लिए बाजार हस्तक्षेप की भी नीति बनी हुई है। हाल के अनुभवों के आलोक में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदवाले फसलों का दायरा बढ़ाने की बात भी उठ रही है। इन तथ्यों के आलोक में मूल्य नीति में बदलाव अपरिहार्य ही है। किसान नेता ग़लत नही कहते fक अगर सरकार २४ रूपए किलो पर विदेशी गेहूं मंगा सकती है तो फिर 15 रूपए किलो किसानो को देने में कोई दिक्कत नहीं आनी चाहिए। कुछ समय पहले धान का समर्थन मूल्य पशु चारे के भाव से भी कम तय किया गया । धान की खेती किसानो के लिए घाटे का सौदा बन गयी है। ऐसे में धान का दाम 1२ ०० से १५०० रूपए कुंतल होना चाहिए । पर इससे भी बड़ा सवाल है अलाभकारी मूल्य तय करनेवाली किसान विरोधी मूल्य नीति से जुड़ा है। इसमें आमूल चूल परिवर्तन होना जरूरी है।बीते एक दशक में खास तौर पर आर्थिक दबाव के चलते देश के डेढ़ लाख किसानो ने आत्महत्या कर ली। इसकी मुख्य वजह वाजिब दाम न मिलना कर्ज में दबा होना था। किसान नेता चौ. महेंद्र सिंह टिकैत का कहना ग़लत नही। वे मानते हैं किसान को फसल का सही दाम मिलने लगेगा तो बहुत सी समस्याओं का निराकरण खुद हो जाएगा।

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