अरविन्द कुमार सिंह
बिहार तथा नेपाल में कोसी नदी की विनाशलीला से कई सवाल खड़े हो गए हैं। आखिर नदियां बेलगाम क्यों होती जा रही हैं और भारत सरकर तथा राज्य सरकारें बाढ़ के स्थायी निदान की दिशा में ठोस रणनीति क्यों नहीं बना पा रही है? अगर बाढ़ों से आम आदमी को तबाह होने से बचाना है तो मजबूत इच्छाशक्ति से आगे बढऩा होगा।सदियों से बिहार के शोक के रूप में कुख्यात कोसी नदी ने हाल में जो महाप्रलय मचाया उससे मची हाहाकार की गूंज दुनिया के हर कोने तक पहुंच गयी है। करीब 200 साल के बाद यह अनहोनी देखने को मिली है कि कोसी पुराने रास्ते पर बहने लगी है और जहां पहले बाढ़ नहीं आती थी, वे इलाके भी डूब गए हैं। नदी पश्चिम से पूर्व की ओर 120 किलोमीटर खिसक गयी है।नेपाल के कुशहा में कोसी नदी पर बना तटबंध टूटने के कारण ही असली संकट खड़ा हुआ है। यह तटबंध वास्तव में 18 अगस्त को ही टूट गया था पर तब किसी को कमसे कम आशंका हीं थी कि कोसी अपने पुराने रास्ते पर चल देगी और चौतरफा तबाही का मंजर देखने को मिलेगा। सरकार और मीडिया दोनों सोयी थी । कोसी भारत नेपाल के मध्य बहनेवाली गंगा की सबसे बड़ी सहायक नदी है। इसकी बाढ़ को लेकर भारत सरकार व नेपाल के बीच 25 अप्रैल 1954 को नेपाल के साथ समझौता हुआ था। इसके तहत बांध बने । हालांकि भारत नेपाल पर और नेपाल के नेता वहां की बाढ़ के लिए भारत को जिम्मेदार ठहराते हैं। नेपाल का कहना है कि भारत में 11 बांधों का निर्माण नेपाल सीमा के करीब हुआ है ,जिसमें से आठ बांधों के बारे में नेपाल सरकार से सहमति भी नहीं ली गयी है।भारत सरकार कोसी नदी के बंधों और बैराज की मरम्मत और रखरखाव के लिए अपने खाते से धन देती है। लेकिन इसकी मरम्मत का पूरा दायित्व बिहार सरकार पर है। इस बांध का जीवनकाल 20 साल पहले ही समाप्त हो गया था,पर सरकार ने ध्यान नहीं दिया। अब जो खबरें छन कर आ रही है, उसके मुताबिक तटबंध बचाया जा सकता था लेकिन ठेकेदारों की आपसी लड़ाई तथा बंदरबांट के चलते सदी की सबसे बड़ी आपदाओं में एक का जन्म हो गया। कोसी नदी का कहर भारत ही नहीं नेपाल भी झेल रहा है और काफी तबाही हुई है। बिहार मे कोसी के ताजा कहर से 15 जिलों में ऐसी तबाही मची है कि सेना और राहत टीमें भी लोगों को अभी तक सुरक्षित स्थानों तक नहीं पहुंचा सकी हैं।प्रधानमंत्री डा। मनमोहन सिंह तथा यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने बिहार के बाढग़्रस्त इलाको का दौरा करके इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित किया और प्रभावित लोगों के लिए एक हजार करोड़ रूपए का पैकेज तथा 1.25 लाख टन अनाज देने की घोषणा भी की है। रेल मंत्री लालू यादव तथा बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के दबाव के चलते केद्र सरकार खास तौर पर हरकत में आयी है। फिलहाल केन्द्र और राज्य सरकार के बीच श्रेय की राजनीति भी शुरू हो गयी है। इस समय उत्तर बिहार के जिलों की 40 लाख से अधिक आबादी सीधे चपेट में है और कोसी का पाट 18 किमी लंबा हो गया है। यही नहीं गंगा, घाघरा, बूढ़ी गंडक भी खतरे के निशान से ऊपर बढ़ गयी हैं। इसी तरह पंजाब में भी सतलुज में आयी बाढ़ से 540 गांव बुरी तरह प्रभावित हैंं।भारत का सबसे ज्यादा बाढग़्रस्त राज्य बिहार माना जाता है, जहां 76 फीसदी आबादी और करीब 74 फीसदी जमीन पर बाढ़ का खतरा बना ही रहता है। कोसी ही नहीं, गंडक , बागमती, बूढ़ी गंडक , कमला बलान, महानंदा समेत कुछ और नदियां हर साल नेपाल से तबाही का पैगाम लेकर बिहार आती है। बिहार के लोगों ने बाढ़ के साथ जीना सीख लिया है और राजनेताओं तथा राहत माफियाओं ने बाढ़ो से अपनी तिजोरियां भरना भी अरसे से जारी रखा है। इसी नाते हर साल बाढ़ बहुतों के लिए खुशहाली का पैगाम भी लाती है। लाखों मकान ध्वस्त हो जाते हैं और खेती तो खैर बर्बाद हो ही जाती है। अकेले बीती बाढ़ में ही बिहार में 6.90 लाख मकान ढ़ह गए थे। इस बार तबाही कितनी हुई है,इसका अंदाज पानी निकल जाने के बाद ही हो सकेगा। 1998 की भयानक यूपी -बिहार की बाढ़ के बाद भारत सरकार ने एक विशेषज्ञ समिति बनायी थी ,जिसने कई योजनाएं बना कर क्रियान्वयन के लिए दोनो सरकारों के पास भेजा। बिहार में कोसी परियोजना भी इसमें शामिल थी। पर इस पर काम आगे नही बढ़ा।राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के मूल्यांकन के मुताबिक भारत में करीब 400 लाख हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ की संभावनाओंवाला है। अगर सरकार चाहे तो इनमें से 320 लाख हैक्टेयर क्षेत्र को बचा सकती है। हर साल बाढ़ से कमसे कम 80 लाख हैक्टेयर क्षेत्र प्रभावित होता है। इसमें से करीब 37 लाख हैक्टेयर फसली क्षेत्र होता है। इतने बड़े इलाको में पानी भरने से जाहिर है कि काफी मात्रा में अनाज उत्पादन भी प्रभावित होता है। लेकिन बाढ़ की समस्या के स्थायी निदान की दिशा मे कमिटी बनाने के अलावा और कोई ठोस प्रयास अभी तक किया नहीं गया है। कई राज्य तो ऐसे हैं, जहां बाढ़ स्थायी आयोजन ही हो गया है। देश में सबसे ज्यादा तबाही दक्षिणी -पश्चिमी मानसून ( 1 जून से 30 सिंतबर) के दौरान होता है। बाढ़ प्रबंधन राज्यों का विषय है और राहत प्रदान करना भी मुख्य रूप से उसके ही जिम्मे है, पर गंभीर मामलों में केन्द्र सरकार अपने कोष से राज्यों को मदद करती है। केद्रीय संसाधन मंत्रालय बाढ़ प्रबंधन का नोडल मंत्रालय बनाया गया है जो राज्य सरकारों से मिल कर ढ़ाचागत और गैर ढ़ाचागत उपाय करता है। बीते दो मौको पर प्रधानमंत्री ने बिहार की बाढ़ की विनाशलीला को करीब से देखा है। 2005 में जब वह बिहार के दौरे पर गए थे तो उन्होने दिल्ली लौटने के बाद केंद्रीय जल आयोग के अध्यक्ष के नेतृत्व में 21 सदस्यीय कार्यबल गठित किया। यह बाढ़ तथा कटाव से संबंघित समस्या से निपटने के लिए बनाया गया था। जाहिर है कि इस दिशा में अगर कोई ठोस प्रयास किया गया होता तो तस्वीर बेहतर ही होती। पर ऐसा हुआ नहीं। इसी तरह बाढ़ की क्षति कम हो इसके लिए केद्रीय जल आयोग ने 171 बाढ़ पूर्वानुमान केद्र बना रखे हैं और चेतावनी भी राज्य सरकारों को भेजी जाती है। लेकिन इस सारे प्रयासों के बाद भी देश में बाढ़ें विकराल होती जा रही हैं। बाढ़ विभीषिका के चलते हर साल लाखों लोग विस्थापित होते हैं, जबकीसंचार तंत्र भी कई हिस्सो में टूट जाता है। यूपी, बिहार और असम के कई हिस्सों में तो आम तौर पर हर साल हाहाकार मचता है। यह भी देखने को मिल रहा है की हाल के सालों में बाढ़े अधिकि प्रलयंकारी होती जा रही है। राजस्थान जैसे मरूप्रदेश के जैसलमेर जैसे इलाको में भयानक बाढ़ आयी थी । देश के अधिकाश बाढ़ प्रवणक्षेत्र गंगा तथा ब्रहमपुत्र के बेसिन , महानदी, कृष्णा और गोदावरी के निचले खंडों में आते हैं। नर्मदा और तापी भी बाढ़ प्रवण है पर गंगा और ब्रहमपुत्र के बेसिन से लगे राज्यों मेंं तो बाढ़ आती ही रहती है। गंगा बेसिन की सभी 23 नदियों की प्रणाली पर अध्ययन कर नियंत्रण प्रणालियों के लिए मास्टर योजनाएं भी बनी और श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री काल में ब्रहमपुत्र और उसकी सहायक नदियो के लिए मास्टर योजनाए तैयार करने के लिए 1980 में ब्रहमपुत्र बोर्ड का गठन किया गया था। बोर्ड ने असम में धौला, हाथीघुली, माजुली दीप में कटावरोधी स्कीम तथा पगलादिया बांध परियोजना शुरू की है। बाढ़ से क्षति के विरूद्द उपयुक्त सीमा तक संरक्षण प्रदान करने के लिए विभिन्न संरचनात्मक और गैर संरचनात्मक उपायों के तहत भंडारण रिजर्वोयर, बाढ़ तटबंध, ड्रेनेज चैनल, शहरी संरक्षण निर्माण कार्य , बाढ़ पूर्वानुमान तथा बंद पड़ी नालियों और पुलो को खोलने जैसे कार्य प्रमुख हैं।हाल में केंद्रीय जल आयोग ने बाढ़ संभावित 6 नदियों ब्रहमपुत्र, कोसी, गंडक , घघ्घर, सतलुज और गंगा के आकृतमूल अध्ययन का काम अपने हाथ में लिया । इसके पहले भी काफी जांच पड़ताल हो चुकी है। पर असली सवाल यह उठता है की बाढ़ों को नियति मान कर चला जाये या फिर दलालों और स्वार्थी तत्वों का जमघट तोडऩे के लिए ठोस रणनीति बना कर इस दिशा में प्रभावी नियंत्रण का कार्य आगे बढ़े।
मंगलवार, 2 सितंबर 2008
मंगलवार, 19 अगस्त 2008
खेती और गांव को कब प्राथमिकता देगी सरकार
अरविन्द कुमार सिंह
बीते छह दशक में भारत ने कई मोरचों पर अपार उपलव्धियां हासिल की हैं। जब क्रमवार उपलव्धियों की बात होती है तो आम तौर पर सभी खाद्यान्न आत्मनिर्भरता को आजादी के बाद की सबसे बड़ी उपलव्धियो में मानते हैं । इस उपलव्धि को किसानो तथा कृषि वैज्ञानिको के साझा प्रयासों से साकार किया गया था। यह उपलव्धि भी देश के महज ढ़ाई सूबों में आयी हरित क्रांति की बदौलत हासिल हुई। देश के अधिकतर हिस्से इस क्रांति से अछूते रहे और अब साठ साल बाद दूसरे हरित क्रांति का तानाबाना बुना जा रहा है क्योंिक पहली हरित क्रांति धार खोने लगी है और पंजाब जैसे सबसे संपन्न और प्रगतिशील खेती करनेवाले सूबे में िकसान आत्महत्या कर रहे हैं। यही नहीं उदारीकरण के बाद खेती को फायदा होने के बजाय झटका लगा है और गांव तथा शहर के बीच की खाई लगातार गहराती जा रही है। विकास की दौड़ से हमारे गांव काफी पीछे छूटते जा रहे हैं। यह विषमता की खाई हमें किस दिशा में ले जाएगी क हा नहीं जा सकता है। देश का नक्शा बीते 60 सालों चाहे जितना बदल गया हो और सकल घरेलू आय में खेती का हिस्सा भले ही लगातार घटता जा रहा हो पर यह महत्वपूर्ण तथ्य है िक भारत की आबादी का 65 से 70 फीसदी हिस्सा खेती पर ही निर्भर हैं। वही दुखद पक्ष यह है िक बीते कई सालों से खेती की विकास दर औसतन 2 से 3 फीसदी के बीच ठहरी हुई है और कई महत्वपूर्ण राज्यों में कृषि उत्पादन ठहर गया है। आज देश के 12 करोड़ किसान परिवारों का क्या हाल है इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है िक इनमें से 60 फीसदी के पास बैंक खाते तक नहीं है। इसी तरह आजादी के बाद कुल 40 फीसदी खेती की भूमि को ही सिंचाई सुविधा मुहैया करायी जा सकी है और बाढ़, सूखा तथा प्राकृतिक आपदाओ से निजात पाने का भी ठीक रास्ता नही खोजा जा सका है। खाद्य प्रसंस्क रण का नया मंत्रालय बनने और कई योजनाओं के बाद भी आज करीब 58,000 करोड़ रू का कृषि उत्पाद बर्बाद हो रहा है। लाखों लोग जिस देश में भूखे पेट सो रहे हों वहां ऐसी स्थिति कितनी दर्दनाक है। पंचायतों का शुद्द राजनीतिकरण कर दिया गया और गांवो में झगड़े और मुकदमेबाजिया बढ़ गयी हैं। फिर भी कई मोरचों पर बदलाव दिख रहे हैं। एक जमाना था जब भारत में अस्पतालों के बाहर ही फल मिला क रते थे पर आज छोटे छोटे कस्बों तक उनकी पहुंच हो गयी है। फलों और सव्जियों के उत्पादन में भारत दुनिया में दूसरे नंबर पर पहुंच गया है। साठ के दशक में जिस हरित क्रांति की गाथा लिखी गयी,उसने हमे काफी मदद पहुंचायी। उन्नत बीजों और वैज्ञानिक समर्थन के नाते हमारे खाद्य भंडार इतना भर गए िक हम निर्यात करने लगे। ले·िकन तिलहन और दलहनी फसलों में अभी भी आत्मनिर्भरता की मंजिल दूर है। भारत में 2002 में केंद्रीय पूल में 630 लाख टन तक अनाज आ गया। और अनाज रखने की जगह भी नहीं बची तो मात्र 90 डालर प्रति टन पर गेहूं निर्यात हुआ। लेकिन आज 60 साल बाद 320 से 360 डालर प्रति टन की दर पर पचास लाख टन गेहूं का आयात किया जा रहा है। देसी किसानो को उपज का उचित दाम देने की ठोस व्यवस्था हम नहीं कर सके हैं पर विदेशी किसानो की तिजोरी हम भर रहे हैं। हमारा आयात बिल बढऩे लगा है। भारत ने अकेले 2005 में 22,000 करोड़ की राशि गेहूं, दाल व तिलहन आयात पर खर्च की यह आत्मनिर्भरता पर सवालिया निशान नही तो और क्या लगाता है। भारत जैसे देश , जिसके पास दुनिया की करीब 17 फीसदी आबादी रह रही है, को अनाज की जरूरत होगी तो दाम तो बढ़ेंगे ही। यूपीए सरकार खेती के मोरचे पर गंभीर नहीं रही। किसान की आमदनी घट रही है जबकि खर्च बढ़ । धड़ाधड़ खेतों में उग रहे सेज उपजाऊ जमीनों को हड़पते जा रहे हैं। प्रधानमंत्री को ऐसा लग रहा है िक कृषि क्षेत्र पैकेज घोषित कर देने से किसानो की सारी समस्याएं छू मंतर हो जाएंगी। उनको शायद किसानो और शहरी विकास के बीच पनप रहे असंतुलन की चिंता नहीं है। वास्तविकता यह है िक किसान आज देश का सबसे कमजोर वर्ग बन गया है । आजादी मिलने के समय देश में खेती किसानी की एक विशिष्ट प्रतिष्ठा थी। पर पिछले दो दशक से केन्द्र और प्रांतीय सरकारें खास तौर पर पूंजीपतियों और प्रोपर्टी के डीलरों की ही पैरोकारी कर रही हैं। उनको किसानो की लगातार बिगड़ रही दशा के प्रति एक दम चिंता नहीं है। सरकारों की समग्र चिंता खेती को बाजार के हवाले कर किसानो को लाभ का लालच देकर निर्यात जरूरतों को पूरी करने भर की दिखती है। सरकारी नीतियों के चलते ही यह हालत बन गयी है िक जो किसानो ज्यादा पैदा करता है वह अपने लिए उतनी ही बड़ी मुसीबत मोल लेता है। छोटे काश्तकारों और खेतिहर मजदूरों में उन 54 फीसदी की हालत बेहद जर्जर है जो गरीबी रेखा के नीचे रह रहे हैं। देश में कुल 23 करोड़ मजदूर खेती बाड़ी में लगे हैं जो िक कुल श्रम शक्ति का 58 फीसदी हिस्सा है। देश के क ई हिस्सों में आज भी बैलगाड़ी युग चल रहा है। खेती को आज भी बैल ट्रैक्टर से ज्यादा ताक त दे रहे हैं। आज भी देश में सात करोड़ बैल तथा अठारह लाख भैंसा कृषि कार्य में लगे हैं और बैलगाडियां 2500 करोड़ टन माल ढो रही हैं। लेकिन एक सोची समझी साजिश के तहत देशी तकनीकी ज्ञान ध्वस्त किया जा रहा है। भारत में ६ लाख से ज्यादा गांव हैं और हर गांव में कमसे कम 50 किसान परिवार रहते हैं। बीते एक दशक से पहले गांवो में आत्महत्या की घटनाएं सुनी भी नहीं जाती थी लेकिन आज ये देश के कई हिस्सों में हो रही है। राजग राज में अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने किसानो की आत्महत्याओं पर काफी शोर मचाया था। देश में आबादी का बोझ बढऩे के साथ जमीनो पर भी दबाव बढ़ रहा है। सीमांत जोतों का राष्ट्रीय औसत ६४ प्रतिशत हो गया है जबकि यूपी जैसे राज्य में सीमांत जोतों की ७४ फीसदी हो गयी है। कुल खेतिहर जोतों मे छोटी जोतों को अलाभकारी ही माना जाता है। यूपी में जोतों का औसत आकार 0.90 हेक्टेयर है जबकि पंजाब में यह 3.61 और हरियाणा में 2.43 हेक्टेयर है। आजादी के बाद यह भी दुखद पक्ष है की देश के विख्यात कृषि वैज्ञानिको को अपेक्षित सम्मान नहीं मिल सका । भारत में नियोजित विकास प्रक्रिया के चलते कई क्षेत्रों में तस्वीर बदली है। पर देहात में करीब पचास लाख परिवार बेघर हैं। देहात में 3.11 ·करोड़ आवासीय इकाइयों की कमी है। देश में 1.26 ·करोड़ आबादी प्रतीकात्मक मकानो में तथा 63 लाख लोग बेहद जर्जर मकानो में रह रही है। भारत में कु ल 8.25 लाख ग्रामीण बस्तियों में से करीब 3.30 लाख बस्तियों के पास केवल मौसमी रास्ते ही हैं। देहाती आबादी का 39 फीसदी हिस्सा एक कमरे के मकान मे रह रहा है। बिजली या बाकी सुविधाओं की हालत कु छ ही जगह ठीक है। इसी तरह देश में ग्रामीण गरीबी आज भी चिंताजनक तस्वीर पेश करती है।1990 के दशक के शुरू में गरीबी 36 फीसदी से घट कर अब 26.1 प्रतिशत रह गयी है ,पर यह आंकडा भी विवादों के घेरे में है। एक डालर से कम आय पर रोज अपना गुजारा करनेवाले लोंगो की भारत मे जितनी आबादी है,उस हिसाब से निर्धनता की दर 39 प्रतिशत मानी जा रही है। देश के आधे निर्धन १३.3 करोड़ लोग उ।प्र।,बिहार और मध्यप्रदेश में रहते हैं और तीन चौथाई निर्धन गांवो मे रहते हैं। इस हालत में देहात और किसान की दशा को समझा जा सकता है
बीते छह दशक में भारत ने कई मोरचों पर अपार उपलव्धियां हासिल की हैं। जब क्रमवार उपलव्धियों की बात होती है तो आम तौर पर सभी खाद्यान्न आत्मनिर्भरता को आजादी के बाद की सबसे बड़ी उपलव्धियो में मानते हैं । इस उपलव्धि को किसानो तथा कृषि वैज्ञानिको के साझा प्रयासों से साकार किया गया था। यह उपलव्धि भी देश के महज ढ़ाई सूबों में आयी हरित क्रांति की बदौलत हासिल हुई। देश के अधिकतर हिस्से इस क्रांति से अछूते रहे और अब साठ साल बाद दूसरे हरित क्रांति का तानाबाना बुना जा रहा है क्योंिक पहली हरित क्रांति धार खोने लगी है और पंजाब जैसे सबसे संपन्न और प्रगतिशील खेती करनेवाले सूबे में िकसान आत्महत्या कर रहे हैं। यही नहीं उदारीकरण के बाद खेती को फायदा होने के बजाय झटका लगा है और गांव तथा शहर के बीच की खाई लगातार गहराती जा रही है। विकास की दौड़ से हमारे गांव काफी पीछे छूटते जा रहे हैं। यह विषमता की खाई हमें किस दिशा में ले जाएगी क हा नहीं जा सकता है। देश का नक्शा बीते 60 सालों चाहे जितना बदल गया हो और सकल घरेलू आय में खेती का हिस्सा भले ही लगातार घटता जा रहा हो पर यह महत्वपूर्ण तथ्य है िक भारत की आबादी का 65 से 70 फीसदी हिस्सा खेती पर ही निर्भर हैं। वही दुखद पक्ष यह है िक बीते कई सालों से खेती की विकास दर औसतन 2 से 3 फीसदी के बीच ठहरी हुई है और कई महत्वपूर्ण राज्यों में कृषि उत्पादन ठहर गया है। आज देश के 12 करोड़ किसान परिवारों का क्या हाल है इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है िक इनमें से 60 फीसदी के पास बैंक खाते तक नहीं है। इसी तरह आजादी के बाद कुल 40 फीसदी खेती की भूमि को ही सिंचाई सुविधा मुहैया करायी जा सकी है और बाढ़, सूखा तथा प्राकृतिक आपदाओ से निजात पाने का भी ठीक रास्ता नही खोजा जा सका है। खाद्य प्रसंस्क रण का नया मंत्रालय बनने और कई योजनाओं के बाद भी आज करीब 58,000 करोड़ रू का कृषि उत्पाद बर्बाद हो रहा है। लाखों लोग जिस देश में भूखे पेट सो रहे हों वहां ऐसी स्थिति कितनी दर्दनाक है। पंचायतों का शुद्द राजनीतिकरण कर दिया गया और गांवो में झगड़े और मुकदमेबाजिया बढ़ गयी हैं। फिर भी कई मोरचों पर बदलाव दिख रहे हैं। एक जमाना था जब भारत में अस्पतालों के बाहर ही फल मिला क रते थे पर आज छोटे छोटे कस्बों तक उनकी पहुंच हो गयी है। फलों और सव्जियों के उत्पादन में भारत दुनिया में दूसरे नंबर पर पहुंच गया है। साठ के दशक में जिस हरित क्रांति की गाथा लिखी गयी,उसने हमे काफी मदद पहुंचायी। उन्नत बीजों और वैज्ञानिक समर्थन के नाते हमारे खाद्य भंडार इतना भर गए िक हम निर्यात करने लगे। ले·िकन तिलहन और दलहनी फसलों में अभी भी आत्मनिर्भरता की मंजिल दूर है। भारत में 2002 में केंद्रीय पूल में 630 लाख टन तक अनाज आ गया। और अनाज रखने की जगह भी नहीं बची तो मात्र 90 डालर प्रति टन पर गेहूं निर्यात हुआ। लेकिन आज 60 साल बाद 320 से 360 डालर प्रति टन की दर पर पचास लाख टन गेहूं का आयात किया जा रहा है। देसी किसानो को उपज का उचित दाम देने की ठोस व्यवस्था हम नहीं कर सके हैं पर विदेशी किसानो की तिजोरी हम भर रहे हैं। हमारा आयात बिल बढऩे लगा है। भारत ने अकेले 2005 में 22,000 करोड़ की राशि गेहूं, दाल व तिलहन आयात पर खर्च की यह आत्मनिर्भरता पर सवालिया निशान नही तो और क्या लगाता है। भारत जैसे देश , जिसके पास दुनिया की करीब 17 फीसदी आबादी रह रही है, को अनाज की जरूरत होगी तो दाम तो बढ़ेंगे ही। यूपीए सरकार खेती के मोरचे पर गंभीर नहीं रही। किसान की आमदनी घट रही है जबकि खर्च बढ़ । धड़ाधड़ खेतों में उग रहे सेज उपजाऊ जमीनों को हड़पते जा रहे हैं। प्रधानमंत्री को ऐसा लग रहा है िक कृषि क्षेत्र पैकेज घोषित कर देने से किसानो की सारी समस्याएं छू मंतर हो जाएंगी। उनको शायद किसानो और शहरी विकास के बीच पनप रहे असंतुलन की चिंता नहीं है। वास्तविकता यह है िक किसान आज देश का सबसे कमजोर वर्ग बन गया है । आजादी मिलने के समय देश में खेती किसानी की एक विशिष्ट प्रतिष्ठा थी। पर पिछले दो दशक से केन्द्र और प्रांतीय सरकारें खास तौर पर पूंजीपतियों और प्रोपर्टी के डीलरों की ही पैरोकारी कर रही हैं। उनको किसानो की लगातार बिगड़ रही दशा के प्रति एक दम चिंता नहीं है। सरकारों की समग्र चिंता खेती को बाजार के हवाले कर किसानो को लाभ का लालच देकर निर्यात जरूरतों को पूरी करने भर की दिखती है। सरकारी नीतियों के चलते ही यह हालत बन गयी है िक जो किसानो ज्यादा पैदा करता है वह अपने लिए उतनी ही बड़ी मुसीबत मोल लेता है। छोटे काश्तकारों और खेतिहर मजदूरों में उन 54 फीसदी की हालत बेहद जर्जर है जो गरीबी रेखा के नीचे रह रहे हैं। देश में कुल 23 करोड़ मजदूर खेती बाड़ी में लगे हैं जो िक कुल श्रम शक्ति का 58 फीसदी हिस्सा है। देश के क ई हिस्सों में आज भी बैलगाड़ी युग चल रहा है। खेती को आज भी बैल ट्रैक्टर से ज्यादा ताक त दे रहे हैं। आज भी देश में सात करोड़ बैल तथा अठारह लाख भैंसा कृषि कार्य में लगे हैं और बैलगाडियां 2500 करोड़ टन माल ढो रही हैं। लेकिन एक सोची समझी साजिश के तहत देशी तकनीकी ज्ञान ध्वस्त किया जा रहा है। भारत में ६ लाख से ज्यादा गांव हैं और हर गांव में कमसे कम 50 किसान परिवार रहते हैं। बीते एक दशक से पहले गांवो में आत्महत्या की घटनाएं सुनी भी नहीं जाती थी लेकिन आज ये देश के कई हिस्सों में हो रही है। राजग राज में अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने किसानो की आत्महत्याओं पर काफी शोर मचाया था। देश में आबादी का बोझ बढऩे के साथ जमीनो पर भी दबाव बढ़ रहा है। सीमांत जोतों का राष्ट्रीय औसत ६४ प्रतिशत हो गया है जबकि यूपी जैसे राज्य में सीमांत जोतों की ७४ फीसदी हो गयी है। कुल खेतिहर जोतों मे छोटी जोतों को अलाभकारी ही माना जाता है। यूपी में जोतों का औसत आकार 0.90 हेक्टेयर है जबकि पंजाब में यह 3.61 और हरियाणा में 2.43 हेक्टेयर है। आजादी के बाद यह भी दुखद पक्ष है की देश के विख्यात कृषि वैज्ञानिको को अपेक्षित सम्मान नहीं मिल सका । भारत में नियोजित विकास प्रक्रिया के चलते कई क्षेत्रों में तस्वीर बदली है। पर देहात में करीब पचास लाख परिवार बेघर हैं। देहात में 3.11 ·करोड़ आवासीय इकाइयों की कमी है। देश में 1.26 ·करोड़ आबादी प्रतीकात्मक मकानो में तथा 63 लाख लोग बेहद जर्जर मकानो में रह रही है। भारत में कु ल 8.25 लाख ग्रामीण बस्तियों में से करीब 3.30 लाख बस्तियों के पास केवल मौसमी रास्ते ही हैं। देहाती आबादी का 39 फीसदी हिस्सा एक कमरे के मकान मे रह रहा है। बिजली या बाकी सुविधाओं की हालत कु छ ही जगह ठीक है। इसी तरह देश में ग्रामीण गरीबी आज भी चिंताजनक तस्वीर पेश करती है।1990 के दशक के शुरू में गरीबी 36 फीसदी से घट कर अब 26.1 प्रतिशत रह गयी है ,पर यह आंकडा भी विवादों के घेरे में है। एक डालर से कम आय पर रोज अपना गुजारा करनेवाले लोंगो की भारत मे जितनी आबादी है,उस हिसाब से निर्धनता की दर 39 प्रतिशत मानी जा रही है। देश के आधे निर्धन १३.3 करोड़ लोग उ।प्र।,बिहार और मध्यप्रदेश में रहते हैं और तीन चौथाई निर्धन गांवो मे रहते हैं। इस हालत में देहात और किसान की दशा को समझा जा सकता है
रविवार, 17 अगस्त 2008
घाटे की खेती को संकट से उबारना जरूरी
अरविन्द कुमार सिंह
कृषि मूल्य नीति के सवाल पर यूपीए सरकार के रवैये से देश के किसान काफी नाराज हैं । देश में कमी न होने के बाद भी विदेशी शक्तियों के दबाव में गेंहूं का मंहगे दामों पर आयात करना और अपने fकसानो को मामूली कीमत देने जैसे मुद्दों की आलोचना के बाद सरकार चेती तो पर इससे किसानो की नाराजगी बेहद बढ़ गयी है। भारतीय किसान यूनियन तथा तथा आंदोलन समन्वय समिति ने सरकार को साफ अल्टीमेटम दे दिया है और कहा है fक आगामी फसल के लिए गेहू का भाव 1500 रूपए कुतल हो । अगर सरकार 24 रूपए किलो में विदेशी गेहूं मंगा लेती है तो फिर 15 रूपए किलो किसानो को देने में दिक्कत नहीं आनी चाहिए।
पर इससे भी बड़ा सवाल अलाभकारी मूल्य तय करनेवाली किसान विरोधी मूल्य नीति से जुड़ा है। इसमें आमूल चूल परिवर्तन लाने की मांग भी अब काफी मुखरता से उठ गयी है। बीते एक दशक में खास तौर पर आर्थिक दबाव के चलते देश में डेढ़ लाख किसानो ने आत्महत्या कर ली। इसकी मुख्य वजह वाजिब दाम न मिलना और किसानो के कर्ज में दबा रहना है। वैसे तो यूपीए सरकार ने किसानो के सामने काफी वायदा किया था पर वह किसानो की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरी। खेती के मंत्री शरद पवार किसानो के पैरोकार हैं और किसान समुदाय में उनकी पैठ भी है। पर नीतियों में बदलो उनके हाथ से बहार की बात है । सव्सिडी घटाने का ही लगातार राग अलाप रहे प्रधानमंत्री डा .मनमोहन सिंह से तो इस मामले में कोई अपेक्षा नहीं हो सकती है। दूसरी तरफ़ वित्तमंत्री पी. चिंदाबरम तो समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद ही समाप्त करने की वकालत कर रहे हैं । यूपीए सरकार के कार्यकाल में जितनी बार भी न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित हुए हैं, उससे किसानो की परेशानी बढ़ी ही है। ज्यादातर मौको पर फसलों के दाम मूल्य नीति की मौजूदा नीतिओं के भी विपरीत फसल बुवाई के बाद घोषित किए गए हैं। दूसरी ओर गेहूं, धान तथा मोटे अनाजों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में मामूली इजाफा ही हुआ।
ऐसा माना जा रहा था, किसान आयोग की सिफारिशों को मानते हुए सरकार कृषि मूल्य नीति पर खास ध्यान देगी और कमियों को दूर किया जाएगा, पर सरकार की विदाई के दिन करीब आ गए हैं और इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की गयी है। हालाँकि यूपीए का दावा था fक उसके एजेंडे में खेती- बाड़ी सर्वोच्च है और इसी नाते कर्जमाफी से लेकर उदार कर्ज नीति बनायी गयी।
भारत में 46 प्रकार की मिट्टी तथा 15 जलवायु क्षेत्र है,जहां खेती की लागत अलग-अलग है। मौजूदा मूल्य नीति किसानो के पारिवारिक श्रम को एकदम नजरंदाज करती है ऐसे में इसे शामिल करते हुए कृषि लागत और मूल्य आयोग को नए सिरे से मानक तय करना चाहिए। उदारीकरण ने भारतीय किसानो को बिना तैयारी के विश्व बाजार में ला खड़ा कर दिया है,पर मूल्य नीति तक ठीक नहीं किया जिस नाते तमाम संपन्न कहे जाने वाले इलाको में किसानो ने आत्महत्या की ।
फसलों के दाम कैबिनेट की आर्थिक मामलों की समिति ने कृषि लागत और मूल्य आयोग की सिफारिसों के आधार पर तय करती है। आयोग की सिफारिसे समिति के पास भेजे जाने के पहले राय के लिए विभिन्न केद्रीय मंत्रालयों तथा राज्य सरकारों के पास भी भेजी जाती हैं। इसमें नौकरशाही इतनी अड़चन खड़ा कर देती है की िक किसान तब तक फसल बुवाई कर लेता है। नियमानुसार फसल बुवाई के काफी पहले समर्थन मूल्य घोषित कर देने चाहिए जिससे किसान तय कर ले िक उसे वह फसल बोने में लाभ है या नहीं। इस बीच में कृषि आदानों के दामों में बहुत ज्यादा बढ़ोत्तरी हुई है। डीजल,खाद,पानी तथा कीटनाशक सभी बहुत मंहगे हों गए हैं। सबसे ज्यादा दिक्कत तो पश्चिमी यूपी ,हरियाणा और पंजाब के हरित क्रांतिवाले इलाको में आ रही है,जहां खेती की लागत आसमान छू रही है।
करने को तो यूपीए ने दूसरी हरित क्रांति का नारा बुलंद किया पर लाभकारी मूल्य और बिना ठोस समर्थन के तो पहली क्रांति ही खतरे में पड़ी है । योजना आयोग के मुताबिक आज भी खेती से ही देश मे सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार मिल रहा है। देश के दो तिहाई लोगों को आजीविका देनेवाले कृषि क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद में २४.2फीसदी का योगदान है तथा कुल निर्यात में भी खेती का योगदान 15 फीसदी से ज्यादा है। मगर वास्तविकता यह है िक 90 के दशक में फसल उत्पादन की वार्षिक वृद्धि दर ३.७२ फीसदी से घट कर २.२९ फीसदी पर आ गयी और अन्न उत्पादन ३.५४ फीसदी से घट कर चिंताजनक स्तर पर यानि १.९२ फीसदी पर आ गया है। इसमें लगातार गिरावट का रूख दिख रहा है। इसमें सुधार के लिए मूल्य नीति को नयी चुनौतियों के लायक बनाना जरूरी है।
न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानो की उपज खरीदना सुनिश्चित करना भी सरकार की ही जिम्मेदारी है। भारतीय खाद्य निगम,भारतीय कपास निगम,नेफेड तथा तंबाकू बोर्र्ड समर्थन मूल्य के दायरे में आनेवाली फसलों की वसूली करते हैं। सरकार कुल 25 फसलों के समर्थन मूल्य तय करती है। कुछ फसलों के लिए बाजार हस्तक्षेप की भी नीति बनी हुई है। हाल के अनुभवों के आलोक में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदवाले फसलों का दायरा बढ़ाने की बात भी उठ रही है। इन तथ्यों के आलोक में मूल्य नीति में बदलाव अपरिहार्य ही है। किसान नेता ग़लत नही कहते fक अगर सरकार २४ रूपए किलो पर विदेशी गेहूं मंगा सकती है तो फिर 15 रूपए किलो किसानो को देने में कोई दिक्कत नहीं आनी चाहिए। कुछ समय पहले धान का समर्थन मूल्य पशु चारे के भाव से भी कम तय किया गया । धान की खेती किसानो के लिए घाटे का सौदा बन गयी है। ऐसे में धान का दाम 1२ ०० से १५०० रूपए कुंतल होना चाहिए । पर इससे भी बड़ा सवाल है अलाभकारी मूल्य तय करनेवाली किसान विरोधी मूल्य नीति से जुड़ा है। इसमें आमूल चूल परिवर्तन होना जरूरी है।बीते एक दशक में खास तौर पर आर्थिक दबाव के चलते देश के डेढ़ लाख किसानो ने आत्महत्या कर ली। इसकी मुख्य वजह वाजिब दाम न मिलना कर्ज में दबा होना था। किसान नेता चौ. महेंद्र सिंह टिकैत का कहना ग़लत नही। वे मानते हैं किसान को फसल का सही दाम मिलने लगेगा तो बहुत सी समस्याओं का निराकरण खुद हो जाएगा।
कृषि मूल्य नीति के सवाल पर यूपीए सरकार के रवैये से देश के किसान काफी नाराज हैं । देश में कमी न होने के बाद भी विदेशी शक्तियों के दबाव में गेंहूं का मंहगे दामों पर आयात करना और अपने fकसानो को मामूली कीमत देने जैसे मुद्दों की आलोचना के बाद सरकार चेती तो पर इससे किसानो की नाराजगी बेहद बढ़ गयी है। भारतीय किसान यूनियन तथा तथा आंदोलन समन्वय समिति ने सरकार को साफ अल्टीमेटम दे दिया है और कहा है fक आगामी फसल के लिए गेहू का भाव 1500 रूपए कुतल हो । अगर सरकार 24 रूपए किलो में विदेशी गेहूं मंगा लेती है तो फिर 15 रूपए किलो किसानो को देने में दिक्कत नहीं आनी चाहिए।
पर इससे भी बड़ा सवाल अलाभकारी मूल्य तय करनेवाली किसान विरोधी मूल्य नीति से जुड़ा है। इसमें आमूल चूल परिवर्तन लाने की मांग भी अब काफी मुखरता से उठ गयी है। बीते एक दशक में खास तौर पर आर्थिक दबाव के चलते देश में डेढ़ लाख किसानो ने आत्महत्या कर ली। इसकी मुख्य वजह वाजिब दाम न मिलना और किसानो के कर्ज में दबा रहना है। वैसे तो यूपीए सरकार ने किसानो के सामने काफी वायदा किया था पर वह किसानो की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरी। खेती के मंत्री शरद पवार किसानो के पैरोकार हैं और किसान समुदाय में उनकी पैठ भी है। पर नीतियों में बदलो उनके हाथ से बहार की बात है । सव्सिडी घटाने का ही लगातार राग अलाप रहे प्रधानमंत्री डा .मनमोहन सिंह से तो इस मामले में कोई अपेक्षा नहीं हो सकती है। दूसरी तरफ़ वित्तमंत्री पी. चिंदाबरम तो समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद ही समाप्त करने की वकालत कर रहे हैं । यूपीए सरकार के कार्यकाल में जितनी बार भी न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित हुए हैं, उससे किसानो की परेशानी बढ़ी ही है। ज्यादातर मौको पर फसलों के दाम मूल्य नीति की मौजूदा नीतिओं के भी विपरीत फसल बुवाई के बाद घोषित किए गए हैं। दूसरी ओर गेहूं, धान तथा मोटे अनाजों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में मामूली इजाफा ही हुआ।
ऐसा माना जा रहा था, किसान आयोग की सिफारिशों को मानते हुए सरकार कृषि मूल्य नीति पर खास ध्यान देगी और कमियों को दूर किया जाएगा, पर सरकार की विदाई के दिन करीब आ गए हैं और इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की गयी है। हालाँकि यूपीए का दावा था fक उसके एजेंडे में खेती- बाड़ी सर्वोच्च है और इसी नाते कर्जमाफी से लेकर उदार कर्ज नीति बनायी गयी।
भारत में 46 प्रकार की मिट्टी तथा 15 जलवायु क्षेत्र है,जहां खेती की लागत अलग-अलग है। मौजूदा मूल्य नीति किसानो के पारिवारिक श्रम को एकदम नजरंदाज करती है ऐसे में इसे शामिल करते हुए कृषि लागत और मूल्य आयोग को नए सिरे से मानक तय करना चाहिए। उदारीकरण ने भारतीय किसानो को बिना तैयारी के विश्व बाजार में ला खड़ा कर दिया है,पर मूल्य नीति तक ठीक नहीं किया जिस नाते तमाम संपन्न कहे जाने वाले इलाको में किसानो ने आत्महत्या की ।
फसलों के दाम कैबिनेट की आर्थिक मामलों की समिति ने कृषि लागत और मूल्य आयोग की सिफारिसों के आधार पर तय करती है। आयोग की सिफारिसे समिति के पास भेजे जाने के पहले राय के लिए विभिन्न केद्रीय मंत्रालयों तथा राज्य सरकारों के पास भी भेजी जाती हैं। इसमें नौकरशाही इतनी अड़चन खड़ा कर देती है की िक किसान तब तक फसल बुवाई कर लेता है। नियमानुसार फसल बुवाई के काफी पहले समर्थन मूल्य घोषित कर देने चाहिए जिससे किसान तय कर ले िक उसे वह फसल बोने में लाभ है या नहीं। इस बीच में कृषि आदानों के दामों में बहुत ज्यादा बढ़ोत्तरी हुई है। डीजल,खाद,पानी तथा कीटनाशक सभी बहुत मंहगे हों गए हैं। सबसे ज्यादा दिक्कत तो पश्चिमी यूपी ,हरियाणा और पंजाब के हरित क्रांतिवाले इलाको में आ रही है,जहां खेती की लागत आसमान छू रही है।
करने को तो यूपीए ने दूसरी हरित क्रांति का नारा बुलंद किया पर लाभकारी मूल्य और बिना ठोस समर्थन के तो पहली क्रांति ही खतरे में पड़ी है । योजना आयोग के मुताबिक आज भी खेती से ही देश मे सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार मिल रहा है। देश के दो तिहाई लोगों को आजीविका देनेवाले कृषि क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद में २४.2फीसदी का योगदान है तथा कुल निर्यात में भी खेती का योगदान 15 फीसदी से ज्यादा है। मगर वास्तविकता यह है िक 90 के दशक में फसल उत्पादन की वार्षिक वृद्धि दर ३.७२ फीसदी से घट कर २.२९ फीसदी पर आ गयी और अन्न उत्पादन ३.५४ फीसदी से घट कर चिंताजनक स्तर पर यानि १.९२ फीसदी पर आ गया है। इसमें लगातार गिरावट का रूख दिख रहा है। इसमें सुधार के लिए मूल्य नीति को नयी चुनौतियों के लायक बनाना जरूरी है।
न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानो की उपज खरीदना सुनिश्चित करना भी सरकार की ही जिम्मेदारी है। भारतीय खाद्य निगम,भारतीय कपास निगम,नेफेड तथा तंबाकू बोर्र्ड समर्थन मूल्य के दायरे में आनेवाली फसलों की वसूली करते हैं। सरकार कुल 25 फसलों के समर्थन मूल्य तय करती है। कुछ फसलों के लिए बाजार हस्तक्षेप की भी नीति बनी हुई है। हाल के अनुभवों के आलोक में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदवाले फसलों का दायरा बढ़ाने की बात भी उठ रही है। इन तथ्यों के आलोक में मूल्य नीति में बदलाव अपरिहार्य ही है। किसान नेता ग़लत नही कहते fक अगर सरकार २४ रूपए किलो पर विदेशी गेहूं मंगा सकती है तो फिर 15 रूपए किलो किसानो को देने में कोई दिक्कत नहीं आनी चाहिए। कुछ समय पहले धान का समर्थन मूल्य पशु चारे के भाव से भी कम तय किया गया । धान की खेती किसानो के लिए घाटे का सौदा बन गयी है। ऐसे में धान का दाम 1२ ०० से १५०० रूपए कुंतल होना चाहिए । पर इससे भी बड़ा सवाल है अलाभकारी मूल्य तय करनेवाली किसान विरोधी मूल्य नीति से जुड़ा है। इसमें आमूल चूल परिवर्तन होना जरूरी है।बीते एक दशक में खास तौर पर आर्थिक दबाव के चलते देश के डेढ़ लाख किसानो ने आत्महत्या कर ली। इसकी मुख्य वजह वाजिब दाम न मिलना कर्ज में दबा होना था। किसान नेता चौ. महेंद्र सिंह टिकैत का कहना ग़लत नही। वे मानते हैं किसान को फसल का सही दाम मिलने लगेगा तो बहुत सी समस्याओं का निराकरण खुद हो जाएगा।
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